मुल्क से ज़्यादा मैं किसे क्या चाहूँ
लब खुलें जब भी बस मैं यही गाऊँ
के जो अपना निशान-ओ-लहू बहाते हैं
वे जो जिस्मों को अपने यूँ ही तपाते हैं
वे जो सरहद पर हरपल एक कहानी हैं
किसने ये उनकी ताकत न पहचानी है
वे जो रोके हैं गोली को अपने सीने से
वो वंचित हैं बहनों की राखी-रोली से
उनको मैं नत्मस्तक हो प्रणाम करता हूँ
उनके चरणों मे मैं ये पैगाम रखता हूँ
के न कुर्बानी तुम्हारी यूँही जाया होगी
अगली पीढ़ी से तुम्हारी यादें ताज़ा होंगी
मैं तो हर पल बस यही दोहराऊं
मुल्क से ज़्यादा मैं किसे क्या चाहूँ
होती होगी तकलीफ उन माताओं को
खलती होगी कमियां भी उनके गांवों को
लहलहाती फसलों और ठंडी छांव को
थोड़ी यादें उनको भी तो झटकाती होंगी
घर की यादें उनको भी तो आती होंगी
फिर भी चलते हैं वो सीने में एक चिंगार लिए
कंधों पर अपने देश की सुरक्षा का भार लिए
लब खुलें जब भी मैं बस यही गाऊँ
मुल्क से ज़्यादा मैं किसे क्या चाहूँ।