Thursday 15 March 2018

स्वछ धरा

सभी को प्रणाम ।

बहुत समय पश्च्यात आपके समक्ष एक कविता के साथ उपस्थित हुआ हूँ , मन से पढियेगा । आपकी प्रतिक्रिया चाहूंगा अगर मेरे कहे गए वाक्य स्तय लगे । कविता का शीर्षक है , "स्वछ धरा" ।

                      "स्वछ धरा"

धरती बोली अम्बर बोला
बस बहुत हुआ अब बहुत हुआ
कण कण इस पावन माटी का
ह्रदय से अब है चीख उठा,
क्या खूब प्रदर्शित किया मुझे
वर्षों से दूषित किया मुझे ।

गंगा बोली यमुना बोली
बस बहुत हुआ अब बहुत हुआ
वैसे तो माता कहा हमे
वर्षों से दूषित किया हमें ।

वायु , अग्नि , जल , पृथ्वी को
देवों का दर्जा दिया गया
पूछा है पंचभूतों ने आज
हमको क्यों दूषित किया गया

जन जन मेरे भारत का क्या
अब इतना स्वार्थी हो गया
खुद को तो स्वछ किया नित रोज़
वातावरण को भूल गया।

सह्रदय नमन है उन्हें मेरा
जो मां को स्वछ बनाते हैं
हम जैसे ही मानुस होकर भी
घर घर कचरा उठाते हैं।

न शर्म उन्हें यह करने में
कचरे के ढेर में मरने में
चिंता है उन्हें हर क्षण यही
माँ न रह जाये कचरे में ।

विनती  बस मेरी इतनी है
की मातृभूमि ये अपनी है
दाग न लगे धरा पे मेरी
सबको यही कोशिश करनी है।।

                                                            धन्यवाद
                                                         "तरुण त्यागी"

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